डॉ.मज़हर नक़वी
इमाम हुसैन के चाहनेवाले पूरेजोश से मुहर्रम को तयारी में जुट गए हैं.घरों की पुताई का सिलसिला शुरू हो चूका है ताकि चाँद रात को इमामबाड़े सजाये जा सकें.कानपुर भी इसका अपवाद नहीं है.हाँ,यहाँ मुहर्रम की दस्तक और जगहों से भिन्न है.पिछले १४७ वर्षों से यहाँ के पुराने इलाक़े में मुहर्रम की दस्तक ढोल- ताशों की धुन से होती है.इस सिलसिले को एक आशिक़े हुसैन बदर अली ने शुरू किया था.वह शहर के इलाक़ो में एक छोटा अलम अपने ढोल-ताशा बजाने वाले चेलों को लेकर निकलते थे.मुहर्रमी धुन को सुनते ही नगरवासी समझ जाते थे कि हमे हुसैन मनाने का वक़्त आ गया है.जिस भी इलाक़े में बदर अली निकलते क्षेत्रीय लोग अलम कि ज़ियारत करते,हाथों पे कलावा बंधवाते और अलम वाहक को नज़राने को तौर पे अपनी बिसात भर नज़्र करते.कुछ सिक्के देते तो कुछ रुपये.बदर अली इस रक़म से शबे-आशूर के दिन अपने इमाम चौक पे ताज़िया रखते जिसे वह ग्वालटोली कि कर्बला जुलुस कि शक्ल में ले जाकर यौमे , आशूर को सुपुर्दे ख़ाक करते थे.उनका ताज़िया कानपुर में सबसे ऊँचा रहे इसलिए वह ईद इ ग़दीर के दिन के फ़ौरन बाद पैदल निकल पड़ते.उनकी कोशिश ज़्यादा से ज़्यादा चंदा इकठ्ठा करने की रहती थी ताकि उनके जुलुस की शानोशौकत में कोई कमी न आये.लोग उन्हें बदर अली न कहकर मुहर्रामवाले बाबा के नाम से पुकारते थे.उनके इन्तिक़ाल के बाद उनकी मुंह बोली बेटी मुन्नी बाजी ने ज़िम्मेदारी संभाली.जब तक शरीर और हिम्मत ने साथ दिया वह भो नंगे पैर आलम लेकर बाबा की तरह निकली.जब माज़ूर हुई तो व्हील चेयर पे निकली.साथ हमेशा आलम और मुहर्रमी बाजा रहा.उनकी दुनिया से रुखसती के बाद बदर अली के ताज़िये को उठाने की ज़िम्मेदारी उस्मान मियां ने संभाली.वह बचपन में बाबा के साथ ढोल बजाते थे.जवानी उनकी मुन्नी बाजी के साथ ताशा बजाते गुज़री.अब वह स्वयं १४७ साल पुराना आलम लेकर निकलते हैं.पुरे साल वह लोगों का इलाज फ़क़ीरी नुस्खों से करते हैं.रोज़ २ हज़ार तक आमदनी भो होती है.लेकिन जैसे ही जश्ने ग़दीर ख़त्म हुआ वैसे ही उनके पैरों से चप्पल ग़ायब हो जाती है.वह ढोल ताशों के साथ नंगे पैर उसी तरह चंदा इकठ्ठा करने निकल पड़ते हैं जैसे बाबा या मुन्नी बाजी निकलती थी.इश्क़े हुसैन और ताज़ियादारी उनकी ज़िन्दगी का एकमात्र मक़सद है.बेकनगंज के जिस इलाक़े में उनका इमाम चौक है वहां ज़मीन की क़ीमत दो लाख रूपए गज़ तक पहुँच चुकी है.भूमाफिआओं ने उनको लालच भी दी की किसी और जगह से ताज़िया उठा ले,मुंह मांगी रक़म का भी लालच दिया गया.मना करने पे धमकी भी मिली.पर जवाब एक ही रहा."अगर मेरे हुसैन ने मेरी मौत किसी माफिया के हाथों लिखी है तो मुझे मंज़ूर है.लेकिन जीते जी हुसैन की जगह किसी और को दे दूँ,ये मुमकिन नहीं.अपने ज़राये और चंदे की रक़म से उन्होंने इमाम चौक का हुलिया बदल दिया.न गुंडों की धमकिया उन्हें रोक सकीय और न ही जिला इन्तिज़ामिया की बेरुखी.उनकी ऍप्लिकेशन्स फाइलों में धूल कहती रही उधर उस्मान मियां की ज़िद चौक को चार चाँद लगाती रही.ग़ैब से उनकी मदद हुई.हर साल न उनका ताज़िया उसी शानोशौकत से उठा बल्कि कट्टरपंथियों की बढ़ती तादाद के बावजूद ज़ायरीन के अक़ीदे व जोश में कमी आयी.बल्कि गाठ वर्ष तो मन्नती ताज़िया चढानेवालों की संख्या सबसे ज़्यादा रही.
आज भी मुहर्रम की आमद की दस्तक उन्होंने अपने रवायती अंदाज़ में शहर में दी.शुरुआत हमेश की तरह बेकनगंज से हुई और भीड़ तलाक़ महल,रेडीमेड मार्केट,चमड़ा मंडी,मूलगंज,मेस्टन रोड,शिवाला ,राम नारायण बाजार,नवाब साहिब का हाता,पटकापुर, कुरसवाँ से गुज़र कर वापस चौक पे जाकर उनका सफर तमाम हुआ.अब मुहर्रम की चाँद रात तक वह इस रस्म को निभाते रहेंगे.बातचीत में उन्होंने फख्र से बताया कि मुस्लिम इलाक़ों से ज़्यादा हिन्दू भाई चंदा देते हैं.उन्हें अफ़सोस है कि मुसलमानो का एक बड़ा वर्ग ताज़ियेदारी का विरोधी हो गया है.वह चंदा ब्बि नहीं देते बल्कि उनका मज़ाक़ भी बनाते है कि क्या ढोंग करते हो?हुस्सैनी होने के नाते वह सब्र से काम लेते हैं.किसी कि बात का बुरा नहीं मानते और ख़ामोशी से ढोल ताशा बजाते हुए अपने मक़सद को पूरा करने का सफर जारी रखते हैं.
उन्हें ये अफ़सोस ज़रूर होता है कि रसूल के नवासे कि शहादत का ग़म मानाने से उन्हें मुस्लमान क्यों रोकते हैं?क्या हुसैन ने तीन दिन कि भूक प्यास इसीलिए बर्दाश्त करके अपना भरा घर लूटकर खुद सजदे में अपना सर क़लम इस्लाम की सरबुलन्दी के लिए नहीं कटाया था?पढ़े लिखे वह ज़्यादा है नहीं.बस उतना जानते हैं कि हुसैन मज़लूमो के हुक़ूक़ के लिए शहीद हुए थे.उन्होंने ज़ालिम बादशाह और मानवीय मूल्यों को पामाल करने वाली शासन प्रणाली के समर्थकों के खिलाफ आवाज़ उठायी थी.वो ताकते भी खुद को मुस्लमान कहती थी.शायद आज उन्ही के समर्थक हुसैन की अज़ादारी या ताज़ियादारी का विरोध करते हैं.उन्हें मालूम है जब तक नाम हुसैन ज़िंदा है,उनके पूर्वजों की ज़ालिमाना और इंसानियत को शर्मसार करनेवाली करतूत कभी भी बेनक़ाब हो सकती हैं.उनको यक़ीन है कि जब ऐसी ताक़तें पिछली चौदह सदियों में कामयाब न हो सकीय तो अब क्या होंगी?उस्मान इसीलिए बेख़ौफ़ रहते हैं."जिसका ताज़िया उठता हूँ वही मेरा मुहाफ़िज़ रहेगा.इस बार भी उन्हें धमकियाँ मिल रही हैं.उनकी जान को खतरा है.पर दिल में यक़ीन है कि पुलिस भले माफिआओं से मिल जाये लेकिन ४० लड़कों कि फ़ौज उनके हुसैन जब वह चाहेंगे,भेज देंगे.ये फ़ौज आशिक़े हुसैन कि होती हैं जो न केवल इमाम चौक की रक्षा करती है बल्कि उन लोगों का मुक़ाबला भी करती है जो जुलुस के रास्ते में कभी ठिलिआ तो कभी टट्टर लगा देते हैं या दुकानदारी के नाम पे चौक के आसपास हर मुहर्रम में क़ब्ज़ा कर लेते हैं.इसी यक़ीन के साथ आज भी उन्होंने मुहर्रम की आमद की खबर दी की हर साल की तरह यज़ीदी समर्थक उनके ताज़िये के सामने नतमस्तक हो जायेंगे.उन्हें फ़िक्र सिर्फ इस बात की है कि इस बार भी उनके जुलुस की शान में कोई कमी न आ पाए.
(उस्मान मियां की फोटो गूगल से साभार)
इमाम हुसैन के चाहनेवाले पूरेजोश से मुहर्रम को तयारी में जुट गए हैं.घरों की पुताई का सिलसिला शुरू हो चूका है ताकि चाँद रात को इमामबाड़े सजाये जा सकें.कानपुर भी इसका अपवाद नहीं है.हाँ,यहाँ मुहर्रम की दस्तक और जगहों से भिन्न है.पिछले १४७ वर्षों से यहाँ के पुराने इलाक़े में मुहर्रम की दस्तक ढोल- ताशों की धुन से होती है.इस सिलसिले को एक आशिक़े हुसैन बदर अली ने शुरू किया था.वह शहर के इलाक़ो में एक छोटा अलम अपने ढोल-ताशा बजाने वाले चेलों को लेकर निकलते थे.मुहर्रमी धुन को सुनते ही नगरवासी समझ जाते थे कि हमे हुसैन मनाने का वक़्त आ गया है.जिस भी इलाक़े में बदर अली निकलते क्षेत्रीय लोग अलम कि ज़ियारत करते,हाथों पे कलावा बंधवाते और अलम वाहक को नज़राने को तौर पे अपनी बिसात भर नज़्र करते.कुछ सिक्के देते तो कुछ रुपये.बदर अली इस रक़म से शबे-आशूर के दिन अपने इमाम चौक पे ताज़िया रखते जिसे वह ग्वालटोली कि कर्बला जुलुस कि शक्ल में ले जाकर यौमे , आशूर को सुपुर्दे ख़ाक करते थे.उनका ताज़िया कानपुर में सबसे ऊँचा रहे इसलिए वह ईद इ ग़दीर के दिन के फ़ौरन बाद पैदल निकल पड़ते.उनकी कोशिश ज़्यादा से ज़्यादा चंदा इकठ्ठा करने की रहती थी ताकि उनके जुलुस की शानोशौकत में कोई कमी न आये.लोग उन्हें बदर अली न कहकर मुहर्रामवाले बाबा के नाम से पुकारते थे.उनके इन्तिक़ाल के बाद उनकी मुंह बोली बेटी मुन्नी बाजी ने ज़िम्मेदारी संभाली.जब तक शरीर और हिम्मत ने साथ दिया वह भो नंगे पैर आलम लेकर बाबा की तरह निकली.जब माज़ूर हुई तो व्हील चेयर पे निकली.साथ हमेशा आलम और मुहर्रमी बाजा रहा.उनकी दुनिया से रुखसती के बाद बदर अली के ताज़िये को उठाने की ज़िम्मेदारी उस्मान मियां ने संभाली.वह बचपन में बाबा के साथ ढोल बजाते थे.जवानी उनकी मुन्नी बाजी के साथ ताशा बजाते गुज़री.अब वह स्वयं १४७ साल पुराना आलम लेकर निकलते हैं.पुरे साल वह लोगों का इलाज फ़क़ीरी नुस्खों से करते हैं.रोज़ २ हज़ार तक आमदनी भो होती है.लेकिन जैसे ही जश्ने ग़दीर ख़त्म हुआ वैसे ही उनके पैरों से चप्पल ग़ायब हो जाती है.वह ढोल ताशों के साथ नंगे पैर उसी तरह चंदा इकठ्ठा करने निकल पड़ते हैं जैसे बाबा या मुन्नी बाजी निकलती थी.इश्क़े हुसैन और ताज़ियादारी उनकी ज़िन्दगी का एकमात्र मक़सद है.बेकनगंज के जिस इलाक़े में उनका इमाम चौक है वहां ज़मीन की क़ीमत दो लाख रूपए गज़ तक पहुँच चुकी है.भूमाफिआओं ने उनको लालच भी दी की किसी और जगह से ताज़िया उठा ले,मुंह मांगी रक़म का भी लालच दिया गया.मना करने पे धमकी भी मिली.पर जवाब एक ही रहा."अगर मेरे हुसैन ने मेरी मौत किसी माफिया के हाथों लिखी है तो मुझे मंज़ूर है.लेकिन जीते जी हुसैन की जगह किसी और को दे दूँ,ये मुमकिन नहीं.अपने ज़राये और चंदे की रक़म से उन्होंने इमाम चौक का हुलिया बदल दिया.न गुंडों की धमकिया उन्हें रोक सकीय और न ही जिला इन्तिज़ामिया की बेरुखी.उनकी ऍप्लिकेशन्स फाइलों में धूल कहती रही उधर उस्मान मियां की ज़िद चौक को चार चाँद लगाती रही.ग़ैब से उनकी मदद हुई.हर साल न उनका ताज़िया उसी शानोशौकत से उठा बल्कि कट्टरपंथियों की बढ़ती तादाद के बावजूद ज़ायरीन के अक़ीदे व जोश में कमी आयी.बल्कि गाठ वर्ष तो मन्नती ताज़िया चढानेवालों की संख्या सबसे ज़्यादा रही.
आज भी मुहर्रम की आमद की दस्तक उन्होंने अपने रवायती अंदाज़ में शहर में दी.शुरुआत हमेश की तरह बेकनगंज से हुई और भीड़ तलाक़ महल,रेडीमेड मार्केट,चमड़ा मंडी,मूलगंज,मेस्टन रोड,शिवाला ,राम नारायण बाजार,नवाब साहिब का हाता,पटकापुर, कुरसवाँ से गुज़र कर वापस चौक पे जाकर उनका सफर तमाम हुआ.अब मुहर्रम की चाँद रात तक वह इस रस्म को निभाते रहेंगे.बातचीत में उन्होंने फख्र से बताया कि मुस्लिम इलाक़ों से ज़्यादा हिन्दू भाई चंदा देते हैं.उन्हें अफ़सोस है कि मुसलमानो का एक बड़ा वर्ग ताज़ियेदारी का विरोधी हो गया है.वह चंदा ब्बि नहीं देते बल्कि उनका मज़ाक़ भी बनाते है कि क्या ढोंग करते हो?हुस्सैनी होने के नाते वह सब्र से काम लेते हैं.किसी कि बात का बुरा नहीं मानते और ख़ामोशी से ढोल ताशा बजाते हुए अपने मक़सद को पूरा करने का सफर जारी रखते हैं.
उन्हें ये अफ़सोस ज़रूर होता है कि रसूल के नवासे कि शहादत का ग़म मानाने से उन्हें मुस्लमान क्यों रोकते हैं?क्या हुसैन ने तीन दिन कि भूक प्यास इसीलिए बर्दाश्त करके अपना भरा घर लूटकर खुद सजदे में अपना सर क़लम इस्लाम की सरबुलन्दी के लिए नहीं कटाया था?पढ़े लिखे वह ज़्यादा है नहीं.बस उतना जानते हैं कि हुसैन मज़लूमो के हुक़ूक़ के लिए शहीद हुए थे.उन्होंने ज़ालिम बादशाह और मानवीय मूल्यों को पामाल करने वाली शासन प्रणाली के समर्थकों के खिलाफ आवाज़ उठायी थी.वो ताकते भी खुद को मुस्लमान कहती थी.शायद आज उन्ही के समर्थक हुसैन की अज़ादारी या ताज़ियादारी का विरोध करते हैं.उन्हें मालूम है जब तक नाम हुसैन ज़िंदा है,उनके पूर्वजों की ज़ालिमाना और इंसानियत को शर्मसार करनेवाली करतूत कभी भी बेनक़ाब हो सकती हैं.उनको यक़ीन है कि जब ऐसी ताक़तें पिछली चौदह सदियों में कामयाब न हो सकीय तो अब क्या होंगी?उस्मान इसीलिए बेख़ौफ़ रहते हैं."जिसका ताज़िया उठता हूँ वही मेरा मुहाफ़िज़ रहेगा.इस बार भी उन्हें धमकियाँ मिल रही हैं.उनकी जान को खतरा है.पर दिल में यक़ीन है कि पुलिस भले माफिआओं से मिल जाये लेकिन ४० लड़कों कि फ़ौज उनके हुसैन जब वह चाहेंगे,भेज देंगे.ये फ़ौज आशिक़े हुसैन कि होती हैं जो न केवल इमाम चौक की रक्षा करती है बल्कि उन लोगों का मुक़ाबला भी करती है जो जुलुस के रास्ते में कभी ठिलिआ तो कभी टट्टर लगा देते हैं या दुकानदारी के नाम पे चौक के आसपास हर मुहर्रम में क़ब्ज़ा कर लेते हैं.इसी यक़ीन के साथ आज भी उन्होंने मुहर्रम की आमद की खबर दी की हर साल की तरह यज़ीदी समर्थक उनके ताज़िये के सामने नतमस्तक हो जायेंगे.उन्हें फ़िक्र सिर्फ इस बात की है कि इस बार भी उनके जुलुस की शान में कोई कमी न आ पाए.
(उस्मान मियां की फोटो गूगल से साभार)